‘मेरठियों पर ख़ुद को साबित करने का दबाव नहीं’ – ‘ज़ीरो माइल मेरठ’ के लेखक भुवेन्द्र त्यागी से बातचीत
मेरठ की वह कौन सी चीज है जिसे आप सबसे ज्यादा याद करते हैं?
मेरठ की सड़कें, बाजार, पुराने शहर के सटे-संकरे मोहल्ले, भीड़, कहीं तक भी जा पहुंचतीं गलियां, घंटाघर, पुरानी तहसील, जिमखाना मैदान, विक्टोरिया पार्क, स्टेडियम, बच्चा पार्क (जो अब नहीं रहा), जिमखाना की रामलीला, भैसाली मैदान का रावण दहन, सिनेमाघर, बेगम पुल, बस अड्डे, स्कूलों और कोचिंग सेंटरों के बाहर खिलखिलाते बच्चे, किताबों की दुकानें, जासूसी उपन्यास, रेवड़ी-गजक, नानखटाई, गन्ने के रस की खीर, दिल्ली छोले वालों के छोले-भटूरे, शेर सिंह की चाट, भगत की चाय, राजू और आशा बैंड सहित दर्जनों बैंड, अलसायी सुबह, रेंगती दोपहर और दौड़ती शाम, गर्मियों की शिकंजी, बरसात की कागज की नाव और सर्दियों की धूप... बहुत कुछ याद आता है। यह सब स्मृति में ठहर सा गया है।
आजकल आप मुंबई में रहते हैं, तो मुंबई और मेरठ में कोई एक ख़ास फ़र्क़ बताइए।
मेरठ एक सुस्त शहर था, जो आर्थिक उदारीकरण के बाद जरूर कुछ दौड़ने सा लगा है। मुंबई हमेशा से चुस्त शहर रहा है। मेरठियों पर शायद कभी खुद को साबित करने का दबाव नहीं रहा, इसलिए उनमें आलस का भाव रहता आया है। मुंबईकर सतत गतिशील होने के कारण आलस से दूर रहते हैं। नागरी अनुशासन का भी दोनों शहरों में फर्क है।
ज़ीरो माइल मेरठ लिखने के दौरान कोई रोचक अनुभव हुआ हो तो बताएं।
ज़ीरो माइल मेरठ लिखने के दौरान मेरठ की स्मृति यात्रा करते हुए नोस्टैलजिक पिटारे से बहुत सी चीजें फिर से निकल आईं। सबसे रोचक रहा राजीव मल्होत्रा से 1980 के दशक की शोभायात्राओं और रामलीला के बारे में बात करना। यह एक संस्कृति की पुनर्यात्रा सरीखा था। राजू बैंड, जिसकी धुनों पर हम सभी दोस्त न जाने कितनी बारातों में नाचे थे, के राजू मास्टर से बात करना भी रोमांचक रहा।
वाम प्रकाशन की ज़ीरो माइल सीरीज के बारे में आपकी क्या राय है?
वाम प्रकाशन की ज़ीरो माइल सीरीज एक अभिनव पहल है। इस सीरीज में केवल पुस्तकें ही नहीं आ रही हैं, बल्कि यह एक प्रकार से इन शहरों के सामाजिक-सांस्कृतिक दस्तावेज भी हैं। यह केवल इतिहास नहीं है, इन शहरों के बारे में बोध भी है। विराट लक्ष्य है, लेकिन अगर कालांतर में इस सीरीज में 100 शहरों पर किताबें आ जाएं, तो यह समूचे विश्व में इस तरह का पहला काम होगा।