स्वरमुद्रा
हम अपनी पत्रिका स्वरमुद्रा के इस बृहत् विशेषांक के माध्यम से यही करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके संगीत ने अपनी रसिकता के परिसर में सिर्फ़ संगीत प्रेमियों और संगीतवेत्ताओं को ही नहीं, अनेक अन्य अनुशासनों के समर्थ प्रयोक्ताओं को भी शामिल और रसरंजित किया था। इस रसिक-बिरादरी में कवि-लेखक, चित्रकार, वास्तुकार, रंगकर्मी, नृत्य-कलाकार आदि बड़ी संख्या में शामिल थे। इनमें से अनेक ने अपने-अपने ढंग और दृष्टि से उनपर उनके संगीत पर लिखा भी। हमने यह कोशिश की है कि इस विपुल सामग्री में से जो महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान है, समझ और संवेदना से लिखा गया है वह हिन्दी के अलावा मराठी, अँग्रेज़ी, कन्नड़ आदि से अनूदित कर शामिल किया जाए। हमारे जाने जितना कुमारजी पर अनेक पीढ़ियों के रसिकों ने लिखा है उतना किसी और संगीतकार पर नहीं। इसी विशेषांक को हमें ११०० पृष्ठों के होने के कारण दो जिल्दों में समाहित करना पड़ा है। हो सकता है कि कुछ महत्त्वपूर्ण, फिर भी, छूट गया हो। महानता अपने आप में तो पर्याप्त होती है पर उसपर विचार और लिखना कभी पर्याप्त नहीं हो पाते : वे अपर्याप्त रहने के लिए, एक तरह से, अभिशप्त होते हैं।