प्रतिबद्धता और मुक्तिबोध का काव्य
मुक्तिबोध की कविता को लेकर हिन्दी आलोचना में जितनी चर्चा है, उतना ही कुहासा भी। विरले ही आलोचक होंगे जिन्होंने मुक्तिबोध की रचना की केन्द्रीय ताक़त को उसकी सीमाओं के साथ समझने की कोशिश की है। प्रभात त्रिपाठी का यह अध्ययन केवल इसी कारण महत्त्वपूर्ण नहीं है कि जहाँ वह हमारे समय के इस महत्त्वपूर्ण कवि की विशिष्टता को अपनी पूरी व्याप्ति में उजागर करता है, वहीं उन प्रवृत्तियों की ओर भी पर्याप्त संकेत करता है जो उसकी रचनात्मकता को बाधित करती हैं—बल्कि उसका महत्त्व इस बात में भी है कि वह प्रतिबद्धता जैसी अवधारणा के प्रचलित संकीर्ण और रूढ़ अर्थों से हटकर मुक्तिबोध के माध्यम से एक सर्जक प्रतिभा के प्रतिबद्ध होने के वास्तविक तात्पर्य को उजागर करता है। और ऐसा करते हुए प्रभात त्रिपाठी मुक्तिबोध के सन्दर्भ से प्रतिबद्धता की धारणा के केन्द्र में किसी विचारधारा को नहीं बल्कि रचना की स्वायत्तता को रखते हैं। 'प्रतिबद्धता और मुक्तिबोध का काव्य' इसलिए मुक्तिबोध के अध्येताओं लिए तो एक आवश्यक पुस्तक है ही, वह हर उस पाठक के लिए भी अनिवार्य रूप से पठनीय है जो साहित्य और समय के रिश्तों की जटिल बनावट को किसी सरलीकृत अव धारणा में घटा कर नहीं बल्कि उस के रेशे-रेशे में समझना चाहता है। सहज प्रवाहमय भाषा और आत्मीय शैली के साथ इतना तटस्थ और बारीक विश्लेषण एक दुर्लभ संयोग है।