Prachin Bharat
प्रस्तुत पुस्तक मूलतः छात्रों की जरुरत का ध्यान में रख कर लिखी गयी है! इस पुस्तक में प्राचीन भारत के अंतिम दौर और मध्यकालीन भारत का आरम्भिक चरण के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की पड़ताल की गयी है! इस क्रम में भौतिक विकास को केंद्र में रख कर उपलप्ब्ध नवीनतम साक्ष्यों के आधार पर राज्यों के आविर्भाव और उनके विकास के विविध कारकों पर प्रकाश डाला गया है! सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के परिवर्तनोन्मुख और यथास्थितवादी तत्त्वों पर विशेष ध्यान दिया गया है! इसमें आर्थिक शोषण के उन बदलते रूपों का भी विश्लेषण किया गया है, जिनके चलते समाज में अनेक प्रकार के तनाव जन्म लेते हैं! पुस्तक उपनिवेशवादी और सांप्रदायिक दृष्टि वाले इतिहास लेखन के अनेक मिथकों को भी तोड़ती hai!
पश्चिमी इतिहासकारों का एक दल इस बात को प्रचारिक करता रहा है की प्राचीन काल से ही भारतीय समाज स्थिर और अपरिवर्तनीय रहा है! इस दृष्टिकोण का प्रचार ब्रिटिश साम्राज्य की नीव को पुख्ता करने के लिए किया गया था! परोक्ष रूप से आज भी कुछ भारतीय इतिहासकार किसी न किसी रूप में इस विचार को आगे बढ़ाने में लगे है! इस पुस्तक मई दलील देकर इन कुप्रचारकों का खंडन किया गया है! पुस्तक छात्रों के साथ अध्यापकों को भी अपने अतीत को वैज्ञानिक ढंग से देखने की दृष्टि देती है!