मैं एक कारसेवक था
‘मैं एक कारसेवक था’ को पढ़ना संघ की साम्प्रदायिक, फासीवादी गलियों से होते हुए आम्बेडकरवाद की ओर सचेत यात्रा से गुजरना है. यह यात्रा सिद्धांत बघारकर नहीं, गैर-बराबरी का दंश भोगते-जीते हुई है. इसलिए इसमें समाज का असली चेहरा विश्वसनीयता के साथ बेपर्दा हुआ है. सन 2000 के गुजरात नरसंहार का यह सच कितने लोग जानते-समझते हैं, जो भंवर ने अपने दौरे और बातचीत में देखा-महसूसा- ‘गुजरात नरसंहार में दलित एवं आदवासियों का बड़े पैमाने परदुरुपयोग किया गया. लूटपाट और मारपीट के दौरान मची अफरातफरी के दरमियान पुलिस की गोली का शिकार होने वाले इन्हीं वर्गों के लोग थे. मतलब उन ताकतों का खेल सफल रहा जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम को आपस में लड़ मरते हुए देखना चाहती थीं. जिन्होंने लड़ाया वे सुरक्षित बने रहे…. आजकल दलित अपने आपको कट्टर हिंदू साबित करने के लिए दंगे-फसाद में सबसे आगे रहते हैं. इन्हें कौन समझाए कि ये जो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, उनका 80 फीसदी तुम्हारे ही वर्ग से गया है… छोटे-छोटे अध्यायों में लेकिन स्पष्ट्ता से भंवर बताते हैं कि संघ के पदाधिकारी किस तरह युवाओं का ब्रेन वॉश करते और उन्हें दंगा करने तथा शस्त्र प्रशिक्षण देते हैं.