किसका संविधान, किसका देश?
जब तक आवाज़ बची है, तब तक उम्मीद भी बची है। इस श्रृंखला की अलग-अलग कड़ियों में आप अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों पर लेखकों-कलाकारों-कार्यकर्ताओं की बेबाक टिप्पणियां पढ़ेंगे।
जिस समय नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का विरोध पूरे देश में जारी है, तमाम पक्ष-विपक्ष इसी प्रश्न से तय हो रहे हैं कि भारतीय संविधान के लिए भारत का तसव्वुर क्या रहा है। एक लम्बी उपनिवेशवाद-विरोधी लड़ाई के मूल्यों को सँजोने वाला हमारा संविधान हिंदू महासभाई और मुस्लिम लीगी संकीर्णता को नकार कर ही वजूद में आया था। वह धर्म, जाति, लिंग, प्रांत, भाषा आदि के आधार पर देश के नागरिकों में भेद नहीं करता। उसकी निगाह में किसी की दावेदारी कम या ज़्यादा नहीं है। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत की ऐसी संवैधानिक संकल्पना को दरकिनार करने की कोशिशें जब-तब तेज़ होती रही हैं, और जब-जब ऐसा हुआ है, इस संकल्पना को पुनर्नवा करने वाला वैचारिक उद्यम भी तेज़ हुआ है। यह किताबचा उसी की एक बानगी है।
लेखक : जस्टिस अजीत प्रकाश शाह | रोमिला थापर | प्रभात पटनायक | प्रबीर पुरकायस्थ | रोहित डे
इंदिरा जयसिंह | उषा रामनाथन | सुबोध वर्मा