कबीर और कबीरपंथ
इस ब्रिटिश शोधकर्ता लेखक ने कबीर की वैचारिकी के उन तमाम पहलुओं को छुआ है, जिसे दूसरे लेखक कम ही छू पाए हैं। ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि अपने शोध के लिए वे कबीर और कबीरपंथ से जुड़े देश के अनेक सुदूर हिस्सों में गए और तथ्यों को जाना। लेखक के मन में कोई आग्रह या पूर्वाग्रह नहीं था। यह पुस्तक भले ही एक ज़मीनी शोधपत्र है, लेकिन लेखक ने इसे एक शोधपत्र की भांति बोझिल नहीं होने दिया। इस पुस्तक के प्रकाशन के करीब नब्बे वर्ष बाद इसका प्रथम हिंदी अनुवाद कंवल भारती ने किया है।
उनका अनुवाद भी मूल लेखक की शैली के अनुरूप है। अनुवाद कर्म के दौरान उन्होंने अविरल प्रवाह को ऐसे बनाए रखा है, जिससे यह कृति कहीं से भी अनूदित नहीं लगती। असल में, जब हम कबीर साहित्य पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि कबीर हर कालखंड में विद्वान अध्येताओं को आकर्षित करते रहे हैं और इसलिए हमें कबीर व उनके साहित्य के संबंध में प्रचुर मात्रा में सामग्री मिल जाती है। हालांकि यह भी सही है कि कबीर व उनके साहित्य को अपने लेखन का केंद्रीय विषय बनानेवाले अधिकांश हिंदी लेखक अपनी पूर्व धारणाओं से मुक्त कम ही दिखाई देते हैं। बाजदफ़ा वे कबीर पर अपनी विचारधारा का मुलम्मा चढ़ाने की मानसिकता का शिकार होते दिखते हैं। उदाहरणस्वरूप हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल आदि कबीर को हिंदुत्व के खास खांचे में डालते दिखते हैं।