गीली मिट्टी पर पंजों के निशान

9789395160209

Setu Prakashan, 2023

Language: Hindi

144 pages

Price INR 260.00
Book Club Price INR 221.00
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LWB1500

यह एक चकित करने वाला तथ्य है कि हिन्दी कविता में प्रस्थान बिन्दु या पैराडाइम शिफ्ट हमेशा हाशिये में प्रकट होने वाली आकस्मिक कविताओं के द्वारा हुआ है। चाहे मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में, राजकमल चौधरी की कविता मुक्ति प्रसंग, धूमिल की पटकथा, सौमित्र मोहन की लुकमान अली, आलोकधन्वा की गोली दागो पोस्टर आदि कविताएँ हाशिये में अचानक कौंधने वाली ऐसी कविताएँ थीं, जिन्होंने मुख्यधारा की तत्कालीन स्वीकृत कविताओं की दिशा बदल दी। फ़रीद की कविता एक और बाघ ऐसी ही अकस्मात् कविता थी, जिसने एक दशक पहले, अँधेरे में किसी कंदील की तरह मेरा ध्यान खींचा था। इस कविता को पढ़कर मेरे प्रिय और अँग्रेज़ी के विख्यात लेखक अमिताव कुमार ने टिप्पणी की थी कि बाघ कविता के पोस्टर्स छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों के हर पेड़ पर टाँग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयाँ... कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है! यह कविता जब आयी थी तब छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम चल रहा था, फ़िल्म कांतारा में जिसकी परिणति दिखाई पड़ती है, यह उसी मार्मिकता की कविता है। इसके बाघ की आँखों में हरियाली का स्वप्न है जिसे चारों तरफ़ से घेरकर मारा जाता है। असल में कविता ने फ़ासिज्म की आहट को भी पहचाना था। इस सन्दर्भ में यह कविता अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।

Farid Khan

फ़रीद ख़ाँ पटना में पले-बढ़े हैं। लगभग बचपन से ही पटना इप्टा से जुड़े रहे। पटना विश्वविद्यालय से उर्दू में एमए करने के बाद लखनऊ के भारतेंदु नाट्य अकादमी से नाट्य-कला में स्नातक। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। दो नाटकों का लेखन जिन्हें पटना में इप्टा और नट-मंडप ने मंचित किया। अभी मुंबई में टीवी और फिल्मों में पटकथा लेखक के रूप में सक्रिय।