भागा हुआ लड़का
मनोरंजन ब्यापारी बंगाली दलित साहित्य का चमकता सितारा हैं। रिफ़्यूजी, मज़दूर, सफ़ाई कर्मचारी, खलासी, नक्सली, रिक्शेवाला, रसोइया, लाइब्रेरियन और अब एमएलए - अपने हर अवतार में ब्यापारी समाज के एक नए चेहरे का प्रतिनिधित्व करते आए हैं।
ब्यापारी के उपन्यासों की इस अद्भुत त्रयी के पहले भाग की शुरुआत पूर्वी पाकिस्तान से होती है। यह जीवन की कहानी है जो अपने दलित मां-बाप की गोद में मुस्लिम बहुल राष्ट्र से भाग कर पश्चिम बंगाल के रिफ़्यूजी कैंप में आता है। जन्म के समय शहद की कुछ बूंदों से वंचित, वह कैंप
में भी हमेशा गर्म भात के लिए तड़पता रहता है, जहां कई विस्थापित परिवार बेहद ख़राब हालातों में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। बमुश्किल तेरह साल का जीवन कलकत्ता भाग जाता है। उसने सुना है कि शहर में पैसे हवा में उड़ते हैं। और एक बार जब वह घर छोड़ देता है तो बाहरी दुनिया से चकित इस भूखे पर दृढ़ बच्चे की यात्रा के माध्यम से हम उस नए स्वाधीन भारत को देखते हैं जो सांप्रदायिकता और हर तरह की असमानताओं से जकड़ा था। ब्यापारी की अद्वितीय
दृष्टि के ज़रिए आप एक नमःशूद्र बालक के डर, साहस और जिजीविषा से रूबरू होते हैं। यह उपन्यास एक महान प्रतिभा का जीता-जागता प्रमाण है।