अपनों के बीच अजनबी
क्या मुस्लिम नौजवान ‘लव जेहाद’ करना चाहते हैं?
क्या मुसलमान कश्मीरी आतंकियों का समर्थन करते हैं?
क्या मुस्लिम मोहल्ले ‘मिनी पाकिस्तान’ होते हैं?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो आजकल अल्पसंख्यकों से अकसर पूछे जा रहे हैं। यही नहीं, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजों का उपहास किया जा रहा है और देश के प्रति उनकी निष्ठा पर भी उँगली उठायी जा रही है। यह काम बहुसंख्यक वर्ग का एक ख़ास तबक़ा कर रहा है। उसका मकसद पूरे समाज में अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति नफ़रत पैदा करना है।
यह किताब ऐसे माहौल में अल्पसंख्यक वर्ग के एक युवा की मनोदशा को सामने लाती है। इसमें लेखक ने उन सवालों और आरोपों के जवाब तार्किक रूप से दिये हैं जिनसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ फैलायी जा रही अफ़वाहों और धारणाओं का सच सामने आता है। यह किताब सिर्फ़ अल्पसंख्यकों की नहीं, उन सबकी भी आवाज़ है जो भारत को समरसता की भूमि के रूप में देखते हैं और धर्मनिरपेक्षता तथा समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों के प्रति आदर का भाव रखते हैं।