जम्बूद्वीपे भरतखंडे महर्षि मार्क्स के हथकंडे
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जब कार्ल मार्क्स को मृत्युलोक से धरती पर कुछ पल बिताने का मौका मिलता है, तो वे चुनते हैं हिंदुस्तान की यात्रा करना। यहाँ पहुँचकर वे खोलते हैं अपने जीवन के अध्याय और इसी क्रम में खुलने लगती हैं भारतीय समाज की न जाने कितनी परतें . . .
“पता नहीं आपको कैसा लग रहा होगा मुझे यहाँ मौजूद देख कर? आप सोच रहे होंगे, ‘मार्क्स अभी तक ज़िंदा है? हमने तो सुना था और सोचा था कि . . . वो तो मर गया। उन्नीसवीं सदी में ना सही – तो 1989 में तो definitely मर गया था मार्क्स।’ आपने ठीक सोचा था। मैं 1883 में ही मर गया। पर अब तक ज़िंदा भी हूँ। जी हाँ, ‘मर गया हूँ – पर ज़िंदा हूँ’। हःहःहः! इसी को तो कहते हैं dialectics या द्वंद्ववाद – द्वंद्वात्मकता।”