Baqi Itihas
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एक इतिहास वह है जिसे राजा–महाराजा, शासक शक्तियाँ और मुख्यधारा के नायक बनाते हैं; इसके बरअक्स एक दूसरा इतिहास भी होता है । इस इतिहास में शामिल होते हैं वे तमाम बेचेहरा लोग जिनके कंधों से होकर नायकों के विजय–मत्त घोड़े अपने झंडे फहराते हैं । मसलन, सीतानाथ जो इस नाटक का ‘नायक–नहीं’ है । वह इतिहास के पिछवाड़े पड़े लाखों औसत जनों की तरह का ही एक शख़्स है, जिनका नाम कहीं दर्ज नहीं होता । लेकिन सीतानाथ इसी व्यर्थता–बोध के चलते आत्महत्या करता है और एक स्थानीय अख़बार में एक–कॉलमी खबर बनकर उभरता है । शरद जो खुद भी ‘नायक नहीं’ है, अपनी लेखिका पत्नी वासन्ती के साथ मिलकर उस आत्महत्या पर एक कहानी गढ़ने की कोशिश करता है, लेकिन असफल होता है, और अन्त में पाता है कि वह भी सीतानाथ की ही तरह बाकी इतिहास का एक अर्द्ध– नायक भर है जिसके सामने न जीने की वजह मौजूद है, न मरने की । मध्यवर्ग की इसी उबाऊ और दमघोंटू दैनिकता का विश्लेषण बाकी इतिहास अपने बहुस्तरीय शिल्प के माध्यम से करता है । देश के कोने–कोने में सैकड़ों बार सफलतापूर्वक मंचित हो चुके इस नाटक का विषय आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तीन दशक पहले था ।