संघर्ष हमारा नारा है
जब तक आवाज़ बची है, तब तक उम्मीद भी बची है। इस श्रृंखला की अलग-अलग कड़ियों में आप अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों पर लेखकों-कलाकारों-कार्यकर्ताओं की बेबाक टिप्पणियां पढ़ेंगे।
गुज़रे हुए पाँच-छह साल अगर सांप्रदायिक-नवउदारवादी गठजोड़ की ज़्यादतियों और ज़ुल्मों के साल रहे हैं, तो उनके ख़िलाफ़ भारतीय जन-गण की संघर्षप्राण एकजुटता के भी साल रहे हैं। किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलित, स्त्री, विद्यार्थी, कलाकार, कलमकार – सबने यह दिखा दिया और लगातार दिखा रहे हैं कि इस गठजोड़ को अपना एजेंडा पूरा करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। बिना इजाज़त भी एजेंडे पूरे किए जा सकते हैं/जाते हैं, लेकिन यह साफ़ हो गया है कि ऐसी हसरत पालने वाली भाजपा-आरएसएस को लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। ज़ाहिर है, अब एजेंडे का भविष्य उनके दाँतों और आँतों की क्षमता पर निर्भर है।
ज़्यादतियों और ज़ुल्मों की कहानियों के साथ-साथ इन संघर्षों की कहानियों को सुनना-सुनाना, सबक हासिल करने के लिए भी ज़रूरी है और उम्मीद की लौ क़ायम रखने के लिए भी।
लेखक : जगमति सांगवान | हीरालाल राजस्थानी | पुरुषोत्तम ठाकुर | पूजा अवस्थी
चित्रांगदा चौधरी | सुबोध वर्मा | विजू कृष्णन | अशोक धावले | अजित नवले | किसन गुजर
सोनाली | भाषा सिंह | उमेश कुमार यादव | अमित सिंह | प्रशांत. आर | वरुण ग्रोवर