हल्ला बोल
‘मैं सफ़दर को बहुत चाहता था। वैसे, भला कौन उसे नहीं चाहता था? हम सभी उसकी दिलकश शख़्सियत, उसके सहज ठहाके, उसकी तमीज़ और तहज़ीब, सहज अभिव्यक्ति, स्पष्ट नज़रिए और कोमल मानवीय मूल्यों के क़ायल थे।’ – हबीब तनवीर
यह मौत की कहानी नहीं है। यह ज़िंदगी की कहानी है। एक सादालौह इंसान की दमकती, हसीन ज़िंदगी की कहानी, जितनी साधारण, उतनी ही असाधारण। सफ़दर हाश्मी की कहानी।
वह नया साल था। साल 1989 का पहला दिन। दिल्ली के एक बाहरी इलाक़े में नुक्कड़ नाटक के परफ़ॉर्मेंस के दौरान जन नाट्य मंच यानी जनम के समूह पर हमला किया गया। सफ़दर जनम के इस समूह का नेतृत्व कर रहा था। उस हमले ने जब उसकी जान ली तब वह सिर्फ़ 34 साल का था।
दिल दहना देने वाले उस हमले – जिसने सफ़दर को मार डाला – के चित्रण के साथ इस किताब की शुरुआत होती है और हमारा परिचय एक ऐसे इंसान से कराती है, जो कलाकार था, कॉमरेड था, कवि-लेखक, अभिनेता था और एक ऐसा इंसान था जिसे सभी चाहते थे, जो सबका प्यारा था। लेकिन यह किसी एक इंसान या किसी एक दुखद घटना पर लिखी गई किताब नहीं है। हल्ला बोल यह बताती है और बेहद बारीक़ी से यह महसूस भी कराती है कि कैसे एक व्यक्ति की मौत और ज़िंदगी, तमाम दूसरे लोगों की कहानियों में गुंथी रहती है।
सफ़दर के बाद बड़ी हुई एक पूरी पीढ़ी के लिए हल्ला बोल एक खज़ाना है। ऐसी कहानियों और ब्यौरों से भरा खज़ाना जो उस दिलचस्प आदमी के जुनून, हास्य, और इंसानियत को एक अंतरंग पोर्ट्रेट के तौर पर आपके सामने नुमायां करती है। सब मिलकर विचारधारा और ज़िंदगी के संघर्ष को आपस में जोड़ने वाली एक मज़बूत कड़ी को सामने लाती है। सफ़दर और उसके साथियों ने जो संघर्ष किए, वह वर्तमान भारतीय समाज को राह दिखाने वाली मशाल है।
जनम का नाटक हल्ला बोल जो हमले के वक़्त झंडापुर में खेला जा रहा था, वह इस किताब में शामिल किया गया है।
इस किताब के लेखन पर हमारा ब्लॉग : The Journey of ‘Halla Bol: The Death and Life of Safdar Hashmi’
This book is also available in English.
A teaser for a podcast based on Sudhanva Deshpande's book on Safdar, हल्ला बोल: सफ़दर हाश्मी की मौत और ज़िंदगी, releasing on April 22. The book recounts Safdar's life from the perspective of one of his close collaborators.
Reviews
"यह किताब एक स्मृति की तरह है, जब सब फ़ौरी है और तुरंत अदृश्य हो जाता हुआ, किताब उस व्यक्ति की स्मृति है जो ठहरने, समझने और संघर्ष करने की ताकीद करता था।"
अंचित, जनसंदेश टाइम्स
"इससे देश में नुक्कड़ नाटक का इतिहास, उसके विकास, उसके दायरे को भी समझने का अवसर मिलता है।"
सुधाकर रवि, समकालीन जनमत
"इस किताब में नुक्कड़ नाटक को एक विधा के रूप में विकसित करने की सफदर और उनके साथियों की जद्दोजहद दिखाई देती है।"
फरीद खान, आउटलुक
“इस किताब में राष्ट्रीय स्तर पर नुक्कड़ नाटकों के आंदोलन का संक्षिप्त वृतांत है। और ये वृतांत ये भी व्यंजित करता है कि राष्ट्रीय स्तर पर नुक्कड़ नाटकों का इतिहास अभी ढंग से नहीं लिखा गया है। सुधन्वा देशपांडे की यह किताब उस कमी को पूरा करने का एक प्रयास है।”
रवींद्र त्रिपाठी, राष्ट्रीय सहारा
मार्क्सवादी राजनीति से जुड़े सफदर एक संपूर्ण सांस्कृतिक नेता थे ... सुधन्वा देशपांडे ने उन्हें ठीक ही नुक्कड़ नाटकों का स्पार्टाकस कहा है. ... योगेंद्र दत्त का अनुवाद इतना सहज और संप्रेषणीय है कि आपको जरा भी पता नहीं चलेगा कि आप अनूदित पुस्तक पढ़ रहे हैं.
संजय कुंदन, आज तक