मोदीनामा
मई 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी ने शानदार चुनावी जीत हासिल की।
यह जीत सामान्य समझ को धता बताती है – जीवन और आजीविका जैसी आधारभूत बातें इस चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बन पाईं? ऐसा क्यों है कि सामान्य और सभ्य लोगों के लिए भी
हिंदुत्व के ठेकेदारों की गुंडागर्दी बेमानी हो गई? क्यों एक आक्रामक और मर्दवादी कट्टरवाद हमारे समाज के लिए सामान्य सी बात हो गई है? ऐसा क्यों है कि बेहद जरूरी मुद्दे आज गैरजरूरी हो गए हैं?
ये सवाल चुनावी समीकरणों और जोड़-तोड़ से कहीं आगे और गहरे हैं। असल में मोदी और भाजपा ने सिर्फ चुनावी नक्शों को ही नहीं बदला है बल्कि सामाजिकं मानदंडों के तोड़-फोड़ की भी शुरूआत कर दी है।
यह किताब प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के पिछले पांच वर्षों की यात्रा को देखते हुए आने वाले पांच वर्षों के लिए एक चेतावनी है।
Reviews
'मोदीनामा' में हर तरह के द्वंद्व से परे रहकर नरेंद्र मोदी के पांच साल के 'करिश्मों' की सर्वथा वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक समीक्षा का जोखिम उठाया गया है। . . . देश की उन सारी शक्तियों के लिए यह गहरे आत्मविश्लेषण का समय है, जो समावेशी और विविधतापूर्ण भारत का सपना देखती हैं। यकीनन, इस आत्मविश्लेषण के लिए 'मोदीनामा' एक बेहद आवश्यक पुस्तक है।
कृष्ण प्रताप सिंह, द वायर
आज देश में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, पिछड़े वर्गों व प्रगतिशील तबकों को एक जुट होने की जरूरत क्यों है, यह पुस्तक इसका तार्किक आधार मुहैया कराती है। जितनी बड़ी संख्या में इसे पढ़ा जाए उतना ही बेहतर होगा।
आलोक कुमार मिश्रा, जनचौक