सफ़दर के शुरुआती साल
सफ़दर हाश्मी एक जानी-मानी हस्ती थे। पर शायद आप रज्जू से परिचित नहीं हैं। उसका स्वभाव कैसा था? उसे पढ़ने-लिखने का शौक़ कैसे हुआ? और उसके सेन्स ऑफ़ ह्यूमर का स्रोत क्या था? सफ़दर के जन्मदिन पर, सुधन्वा देशपांडे की किताब हल्ला बोल का एक छोटा सा हिस्सा :
शुरुआती साल
सफ़दर के पिता हनीफ़ हाश्मी (1924–1976) और माँ क़मर आज़ाद हाश्मी (1927–2013) की शादी 1948 में हुई थी। सबीहा उनकी पहली बेटी थी जिसका जन्म 1949 में हुआ। फिर 1950 में सुहेल और 1952 में शेहला का जन्म हुआ। सफ़दर 1954 में पैदा हुआ। ये चारों बच्चे दिल्ली में पैदा हुए। अब्बूजी, यानी सफ़दर के पिता 1952 में अलीगढ़ जाकर बस गए थे और 1954–55 के जाड़ों में उनकी पत्नी और बच्चे भी अलीगढ़ चले गए। उस वक़्त सफ़दर की उम्र दस महीने के आसपास रही होगी। इनकी सबसे छोटी बहन शबनम का जन्म 1957 में हुआ। अब्बूजी की शख़्सियत के कई पहलू थे। सियासी रुझान से वह कम्युनिस्ट थे।
अलीगढ़ में फ़र्नीचर वर्कशाॅप खोलने से पहले पुरातत्व (आर्कियोलाॅजी) में हाथ-पांव मार चुके थे। क़मर आज़ाद यानी अम्माजी एक स्कू ल में पढ़ाया करती थीं। परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी और कई बार उन्हें बुरे दिन देखने पड़े। ख़ासतौर से अलीगढ़ में बसने के बाद, जहां सफ़दर को दस साल की उम्र तक रहने का मौक़ा मिला। पूरे परिवार पर अम्माजी का ख़ामोश, लामहसूस, और दख़लंदाज़ी से फ़ारिग, मगर बहुत गहरा असर था। साहित्य और कलाओं में उनकी और अब्बूजी की दिलचस्पी बच्चों ने जज़्ब की। सफ़दर का बचपन किताबों से घिरे हुए बीता। अम्माजी भले ही दिन भर की मेहनत के बाद थक जाती थीं मगर सफ़दर को कहानियां सुनाकर ही सुलाती थीं। वह बच्चों के दायरे का सम्मान करती थीं पर उन्हें कभी तन्हा नहीं महसूस होने दिया। उनकी हर ज़रूरत का ख़्याल अम्माजी को होता। वो अपने परिवार का ध्रुव तारा थीं जो कठिन वक़्त में भी परिवार की बागडोर संभाले रहती थीं। फिर बच्चे तो बच्चे होते हैं। जहां भी हों, वे खेल का सामान ईजाद करते हुए अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के तरीक़े ढूंढ ही लेते हैं। और जितनी साधनों की कमी, उतना ही क्रिएटिविटी में इज़ाफ़ा। हाश्मी परिवार के बच्चे भी तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद – या शायद इनकी वजह से – मौज-मस्ती में, और ख़ुशी से रहे। इन भाई-बहनों में आज भी गहरा प्रेम है और सबके पास अपने बचपन की एक से एक बाकमाल यादें हैं। सफ़दर को घर के लोग प्यार से रज्जू कहा करते थे। बचपन के उस दौर को याद करते हुए शेहला अब भी कभी-कभी सफ़दर को रज्जू कहकर याद करती है।
सबीहा और सुहेल उर्दू पढ़ना जानते हैं जिसकी बदौलत उन्होंने प्रेमचंद, इस्मत चुग़ताई, और बहुत सारे लेखक-लेखिकाओं को मूल उर्दू में भी पढ़ा है। सुहेल ने गोर्की के उपन्यास माँ को चौथी या पांचवीं कक्षा में ही पढ़ लिया था – उर्दू में। उसने टाॅलस्टाॅय का भी बहुत सारा अनुवाद पढ़ा है। अब्बूजी भी नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाएं मंगवाते थे। वह शाहराह मंगाते थे जो लगभग प्रगतिशील लेखक संघ (प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन – पीडब्ल्यूए) की पत्रिका थी, हालांकि अधिकृत रूप से ऐसा नहीं था। इसके अलावा वे किताब और शबख़ून, जो शम्सुर्रहमान फारूख़ी इलाहाबाद से निकालते थे, भी मंगाते थे। प्रगतिशील पत्रिका सवेरा और बच्चों की पत्रिका खिलौना कमोबेश नियमित रूप से उनके यहां मंगाई जाती थी। सुहेल को याद नहीं कि सफ़दर का अलीगढ़ के दौर में किताबों से कोई ख़ास लगाव था, मगर जब परिवार फिर दिल्ली आया तो सफ़दर निश्चित रूप से किताबों में डूबता चला गया। जब वह काॅलेज में पहुंचा तब तक ऐसी-ऐसी चीज़ें पढ़ चुका था जो उसके किसी भाई-बहन ने नहीं पढ़ी थीं। सफ़दर ने ही सुहेल को जाॅन डन (‘नो मैन इज़ एन आईलैंड …’) जैसे साहित्य से परिचित कराया। सत्तर के दशक में सफ़दर को जो भी हाथ लगता, वह उसको पढ़ने बैठ जाता। अमेरिकी साहित्य, साहित्यिक आलोचना, ब्ख़्तरे का जो भी हाथ लगता, वह सब पढ़ जाता। इनमें से ज़्यादातर चीज़ें उसके कोर्स, स्कूल, या काॅलेज की ज़रूरतों से अलहदा थीं।
घर में साहित्य का बोलबाला था, सिनेमा का नहीं। परिवार के पास पैसा यूं भी नहीं था। लिहाज़ा फ़िल्म देखने जाना एक बड़ा मौक़ा होता था। जब दिल्ली में बेन हर रिलीज हुई तो अब्बूजी ने ये फ़िल्म देखने के लिए पूरे परिवार को अलीगढ़ से दिल्ली भेजा। फिर दि टेन कमांडमेंट्स दिल्ली में और झनक-झनक पायल बाजे अलीगढ़ स्थित तस्वीर महल सिनेमा में देखी। जब चौदह साल की उम्र में सुहेल दिल्ली लौटा तो उसने अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ चार फ़िल्में देखी थीं। अब्बूजी ने जब रशियन न्यूज़ एजेंसी तास में काम करना शुरू किया तो अपनी पहली तनख़्वाह से वो एक रेडियो लाए थे। दूसरे महीने की तनख़्वाह से उन्होंने एक रिकाॅर्ड प्लेयर और तीन एलपी खरीदे। एक के. एल. सहगल का, एक पंकज मलिक का, और एक रविशंकर की छोटी-छोटी रचनाओं का। काम करते-करते अब्बूजी ग़ालिब और मीर के साथ-साथ फ़ारसी के कुछ शायरों को भी गा लिया करते थे। उन्हें देखते-देखते बच्चे भी इन पंक्तियों को दोहराने लगते थे।
सन चौसं ठ में ये लोग फिर से दिल्ली आए। यहां आकर सफ़दर ने पहले एनडीएमसी के सरोज़नी नगर स्कू ल में दाख़िला लिया। इसके बाद वो बेयर्ड रोड स्थित डीएवी स्कूल जाने लगा। अंत में उसने लोधी रोड स्थित दिल्ली कन्नड़ा सीनियर सेकें डरी स्कू ल में दाख़िला लिया। 1970 में उसने यहीं से हायर सेकें डरी का इम्तिहान दिया। सफ़दर पढ़ने में काफ़ी तेज़ था। नतीजतन, पहली ही कक्षा में उसे डबल प्रमोशन मिला। पहली से वह सीधे तीसरी कक्षा में पहुंच गया। वह और सुहेल जिस स्कूल में पढ़ा करते थे वो पांचवीं कक्षा तक को-एजुकेशनल स्कू ल था यानी उसमें लड़के और लड़कियां साथ पढ़ा करते थे। छठी से लड़कों और लड़कियों के रास्ते अलग हो जाते थे। जिस साल सुहेल ने पांचवीं पार की, उसी साल शबनम को नर्सरी में दाखिला लेना था। डीएवी स्कू ल में नर्सरी हुआ करती थी इसलिए शबनम को भी वहीं दाख़िल करा दिया गया। अब सफ़दर एनडीएमसी स्कूल में अकेला रह गया था। इसे देखते हुए कुछ दिनों बाद उसे भी डीएवी स्कू ल में दाख़िल कर दिया, ताकि तीनों बच्चे एक ही रिक्शे से स्कू ल जाने लगें और कुछ बचत हो। डीएवी में सफ़दर के दाख़िले के कुछ ही दिन बाद कक्षा तीन के उसके कुछ नए दोस्तों को कक्षा चार में भेज दिया गया। सफ़दर सीधे प्रिंसिपल के पास गया और मांग की कि उसे भी अगली कक्षा में बिठाया जाए। प्रिंसिपल साहब मान गए। उम्र में चार साल बड़ा सुहेल अब सफ़दर से सिर्फ़ दो क्लास आागे रह गया था। एक और ज़ुल्म ये हुआ जब सुहेल दसवीं में पहुंचा तो फ़ेल हो गया क्योंकि वह पढ़ाई-लिखाई की बजाए स्कूल में एक हड़ताल आयोजित करने में लगा रहा था। फलस्वरूप, अब वह सफ़दर से सिर्फ़ एक क्लास आगे रह गया था। पूरा नज़ारा प्रेमचंद के बड़े भाई साहब जैसा लगने लगा था जिसमें परिश्रमी और मेधावी बड़ा भाई बार-बार फ़ेल होता जाता है और छोटा भाई सारी आवारगी के बावजूद पास होता जाता है और अंततः पांच साल का फ़ासला ख़त्म हो जाता है और दोनों भाई एक ही कक्षा में पहुंच जाते हैं। शुक्र है कि सुहेल के साथ ऐसी नौबत बस आते-आते रह गई।
सुहेल ने 1969 में और सफ़दर ने 1970 में काॅलेज में दाख़िला लिया। अब्बूजी और सुहेल, दोनों चाहते थे कि सफ़दर का दाख़िला हिंदू काॅलेज में हो मगर उसने ख़ासे एलीट माने जाने वाले सेंट स्टीफ़ंस काॅलेज में अंग्रेज़ी ऑनर्स में दाख़िला लिया। सफ़दर तब अंग्रेज़ी ज़्यादा अच्छी तरह बोल नहीं पाता था। उसे सेंट स्टीफ़ंस में दाख़िला सिर्फ़ इसलिए मिला था क्योंकि इंटरव्यू कमेटी में कोई साहब थे जिन्होंने न जाने कैसे ये भांप लिया था कि ये लड़का इंटेलीजेंट है और लिहाज़ा उसे हिंदी में बोलने की छूट दे दी थी। सेंट स्टीफ़ंस में दाख़िले के इंटरव्यू में सफ़दर कुर्ता पाजामा पहने पहुंचा था। हिंदी में बात करते हुए सफ़दर इंटरव्यू कमेटी को प्रभावित करने में सफल रहा। इंटरव्यू कमेटी के उन जनाब को अंदाज़ा सही निकला। लड़का तेज़ था। जल्दी ही अंग्रेज़ी बोलना सीख गया। लेकिन सफ़दर को अपने काॅलेज के एलीट, अंग्रेज़ीपरस्त माहौल से नफ़रत थी। वह कैं टीन भी नहीं जा पाता था क्योंकि वहां के मेन्यू में जो-जो चीज़ें मिलती थी उनमें से कोई उसके बूते के भीतर नहीं थी। और हां, सेंट स्टीफ़ंस अकेला ऐसा काॅलेज था जहां कैंटीन को कैफेटेरिया कहा जाता था।
ख़ैर, यहां तक आते-आते सुहेल का काफ़ी राजनीतिकरण हो चुका था और वह स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) में सक्रिय हो गया था। जब मैंने मदन गोपाल सिंह और एम.के. रैना के इंटरव्यू लिए तो दोनों ने कहा कि उस वक़्त सफ़दर एक सुंदर, लंबा, छरहरा, शर्मीला, और अधिकाशंतः चुप रहने वाला नौजवान था, जिसे पढ़ने का शौक़ था। रैना बताते हैं कि ‘सुहेल को अपने छोटे भाई पर बड़ा फ़ख़्र था।’
अब सफ़दर का भी राजनीतिकरण हो रहा था। उसी दौरान वह सेंट स्टीफ़ंस में सक्रिय नक्सलवादी विद्यार्थियों के एक समूह की तरफ़ आकर्षित हुआ। बाक़ी वजहें चाहे जो रही हों, इन नौजवानों की तरफ़ आकर्षित होने का एक कारण तो यही था कि सफ़दर की तरह उनके पास भी कैफ़े से कुछ खरीदने के लिए पैसे नहीं हुआ करते थे। सुहेल ख़फ़ा हुआ और उसने सफ़दर को समझाने की कोशिश की। सफ़दर भी बहस पर उतर आया। नतीजा, भाइयों के बीच बोलचाल बंद हो गई। ख़ैर, नक्सलवाद के साथ सफ़दर का इन्फ़ै चुएशन शायद दसेक दिनों में ढीला पड़ गया और वह वापस एसएफ़आई की क़तारों में लौट आया।
तक़रीबन एक दशक बाद सफ़दर ने प्रभात उप्रेती को एक ख़त लिखा जो श्रीनगर, गढ़वाल में सफ़दर के अध्यापन के दौर में उसके सबसे घनिष्ठ मित्र बन गए थे। सफ़दर ने लिखा :
‘स्टेनगन लेकर “दो-चार कमीनों” को मारने की कोई ख़्वाहि श नहीं है। ऐसा करने वालों पर, सोचने वालों पर, तरस आता है। जी चाहता है उन्हें समझाऊं कुछ, आंखें खोलूं उनकी … (उन्होंने) इंक़लाब के रास्ते पर झूठी बहादुरी और महानता का बैरीकेड खड़ा किया था। इनसे प्रेरित होगे तो बर्बाद हो जाओगे।’
उप्रेती को वह हमेशा हिंदी में ही लिखा करता था। ना तो अब्बूजी और ना ही अम्माजी फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते थे। दोनों की स्वाभाविक ज़बान हिंदुस्तानी थी। ख़ासतौर से अब्बूजी के पास महीन हास्य का कमाल था। एक बार सफ़दर का एक दोस्त और अब्बूजी, दोनों डीटीसी की एक ही बस में सफ़र कर रहे थे। बस खचाखच भरी थी। नौजवान और अब्बूजी के बीच थोड़ी-बहुत बातचीत हुई जिसके बाद अब्बूजी को उतरना था।
अब्बूजी ने नौजवान से कहा, ‘अगर आप इजाज़त दें तो मैं चलूं?’
इस बेइंतहा विनम्रता से हड़बड़ाए नौजवान ने जैसे-तैसे ‘गुडबाय’ कहा, मगर अब्बूजी वहीं खड़े रहे। फिर उसी विनम्रता से बोले, ‘आपके साथ आपके पैर की इजाज़त भी चाहिए।’
नौजवान इस पूरे दरमियान अब्बूजी के पांव पर पांव धरे खड़ा हुआ था।
फ़ीचर इमेज : सफ़दर के बचपन की तस्वीर। स्रोत : जनम फ़ोटो आर्काइव।