"अलीगढ़ उस मिज़ाज का शहर नहीं रहा जो हमारे दौर में था": 'ज़ीरो माइल अलीगढ़' के लेखक जयसिंह से बातचीत
अलीगढ़ की कौन सी चीज है जिसे आप सबसे ज्यादा मिस करते हैं?
मैं पूरे अलीगढ़ को ही मिस करता हूं। मगर सबसे ज्यादा मिस करता हूं उस माहौल को, जो पहले जैसा बिल्कुल नहीं। अलीगढ़ की नुमाइश, जिसका हर अलीगढ़वासी सालभर बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करता है। नुमाइश में बार-बार जाना और नुमाइश में होने वाले मुशायरे/कवि-सम्मेलन के लिए देर रात तक डटे रहना। अलीगढ़ के सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल, जहां पहले शो में फिल्म देखने की चाहत, बर्छी बहादुर पर उर्स के दौरान होने वाली कव्वालियों के आयोजन और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की वह कैंटीन जहां दोस्तों के साथ चाय और मठरी पर दुनिया जहान की बातें।
इस किताब को लिखने के क्रम में अलीगढ़ की कोई ऐसी चीज़ भी सामने आई जिससे आप अनजान थे?
हां, एक नहीं कई ऐसी चीजें सामने आईं जिनके बारे में इस किताब को लिखने से पहले मैं बिल्कुल अनजान था। जैसे अलीगढ़ का धर्म समाज कॉलेज, जहां से मैंने पढ़ाई की। मुझे नहीं पता था कि यह कॉलेज जिस जमीन पर बना है वह दिल्ली से आकर अलीगढ़ में बसे एक सेठ की कोठी के बागीचे का हिस्सा है, जिसे उसने दान में दिया। और इसके ठीक सामने हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थल अचल ताल पर की जाने वाली परिक्रमा को छोटी बृज कोसी की परिक्रमा का दर्जा प्राप्त है, जिसका ताल्लुक़ महाभारत काल से भी है, और यहां बने 51 मंदिरों के लिए सिंधिया ने 100 बीघा जमीन दान में दी थी। इसी तरह, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में दो ढाबे थे- कैफे डी लैला और कैफे डी फूस जहां मशहूर शायर मजाज़ लखनवी, राही मासूम रज़ा, अली सरदार जाफरी बैठते थे।
अलीगढ़ की हाल की यात्रा में कोई ऐसी बात नज़र आई जिसने आपको चौंका दिया हो?
अकसर अलीगढ़ आना-जाना होता रहता है मगर अब यह शहर अन्य शहरों जैसा ही दिखता है। महानगरीय मानसिकता, बाज़ारों, सड़कों से गलियों तक पहुंच गई है। शहर की पहचान रहे स्थानों के अस्तित्व मिटने लगे हैं। लगता ही नहीं कि यह वही शहर है जो न जाने कितने बदलते दौर अपने सीने में समेटे है। अलीगढ़ उस मिज़ाज का शहर रहा ही नहीं जो हमारे दौर में था।
इस किताब को लिखने के लिए किस तरह की तैयारी की?
इस किताब को लिखने के लिए संदर्भ से अधिक मानसिक रूप से हिम्मत जुटानी पड़ी, स्मृतियों को सहेजा क्योंकि यह किताब, तय फॉर्मैट से अलग थी, जिसमें सिर्फ तारीख़ों और घटनाओं का जिक्र भर न हो। और यही इस किताब की विशेषता है। फिर भी ऐतिहासिक घटनाओं को शामिल करने के लिए कुछ संदर्भ ग्रंथों और किताबों को टटोला। इब्नेबतूता प्रसंग के लिए अमेरिकी लेखक रॉस ई डुन की किताब ‘द एडवेंचर्स ऑफ इब्नेबतूता...’ पढ़ी। अलीगढ़ के दंगों पर बने तमाम जांच आयोगों, अख़बार की क्लिपिंग्स खासकर इंडियन एक्सप्रेस की और अलीगढ़ के दंगों पर एएमयू में हुई रिसर्च। दादी 100 साल से ऊपर की हैं लेकिन उनकी याददाश्त ग़ज़ब की है। अलीगढ़ पर उनके पास बताने के लिए काफी ख़ज़ाना था, जिसमें से कुछ मैंने भी लिया। पिताजी ने अंग्रेजों के दौर की कई सुनी-अनसुनी घटनाएं बताईं। अलीगढ़ के पुराने साथी, दोस्त, गुरुओं से मिलने और उस दौर को याद करने का अवसर मिला। फिर भी बहुत कुछ कहने से रह गया। आख़िर एक किताब में सदियों के इतिहास, कला- संस्कृति, परंपरा, खेल, राजनीति को रखना लगभग असंभव ही है।
वाम प्रकाशन की ज़ीरो माइल सीरीज के बारे में आप क्या सोचते हैं?
वाम प्रकाशन की ज़ीरो माइल सीरीज भारतीय शहरों को एकदम नए नज़रिए से देखती है। यह एक अनूठी पहल है। इस सीरीज के पीछे जो परिकल्पना है, वह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सीरीज शहरों का मात्र दस्तावेज़ीकरण नहीं है बल्कि जीता- जागता, चलता फिरता चलचित्र है जो उस शहर के रहने वालों के लिए तो अहम है ही, उन लोगों के लिए भी, जो उस शहर को जानना-समझना चाहते हैं। उनके लिए भी, जिनका उस शहर से कोई सीधा संबंध नहीं रहा। शहर कैसे बसते हैं, कैसे बनते हैं और बदलते दौर के साथ कैसे बदलते हैं, यह जानना कम दिलचस्प नहीं होता। इस लिहाज से अलीगढ़ का भी एक चरित्र है जिसे वहां के इतिहास ने गढ़ा है और साहित्य,कला-संस्कृति,उद्योग-धंधे,खेल और राजनीति ने समृद्ध किया है। इसमें जितने शहर शामिल होते जाएंगे, यह सीरीज उतनी ही समृद्ध होती जाएगी। निश्चित ही वाम प्रकाशन की यह सराहनीय पहल है। इसका स्वागत होना चाहिए।