मॉब लिंचिंग: फ़रीद ख़ाँ की किताब का एक अंश
पहले दंगे वहां होते थे जहां कल-कारख़ाने होते थे। मज़दूर यूनियन होते थे। जहां कुछ दिनों से माहौल ख़राब हो रहे होते थे। चूंकि उसका मकसद मज़दूरों की एकता तोड़ना होता था इसलिए कुछ दिनों के बाद माहौल ठीक भी कर लिया जाता था। सरकार का कितना भी हाथ हो उस दंगे में, जो कि होता ही था, लेकिन वह या दूसरे विपक्षी दल कभी भी खुलेआम दंगे के समर्थन में नहीं उतरते थे। इसके विपरीत दंगे के बाद माहौल ठीक करने के लिए पद-यात्राएं आदि भी करते थे। समाज के ज़ख़्म पर मरहम पट्टी किया करते थे। मतलब एक शर्म थी। ये सब लिखते हुए मुझे नैतिक रूप से इतनी शर्म आ रही है कि आज ये दिन आ गए हैं कि अब वे पुराने दंगों वाले दिन, जो निश्चित रूप से अच्छे नहीं थे, अच्छे लग रहे हैं। मेरी बात का जिनको यकीन न हो वे सोच कर देखें कि औद्योगिक रूप से किसी पिछड़े हुए शहर और गांव में सांप्रदायिक तनाव की ख़बरें सुनने को नहीं मिलती थीं। 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगे ने इस मिथ को तोड़ दिया। उसने बता दिया कि अब गांव-गांव में दंगे हो सकते हैं। अब इन दंगों का मकसद मज़दूरों की एकता अथवा यूनियन तोड़ना ही नहीं रहा। अब इसका मकसद नफ़रत का प्रचार-प्रसार और साम्राज्य विस्तार है। अब इसका मकसद एक स्थायी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का निर्माण है। इसके लिए कोई एक सांप्रदायिक हिंसा की वारदात से भी लाभ उठाया जा सकता है। माने सैकड़ों लोगों की हत्या का लाभ एक आदमी की हत्या से भी उठाया जा सकता है। ऐसे में ही नए भारत के अच्छे दिनों में मॉब – लिंचिंग का आविष्कार हुआ।
अब कोई भी मुसलमान कहीं भी मारा जा सकता है और उसका सांप्रदायिक लाभ पूरे देश में उठाया सकता है। अब इलाक़े की क़ैद ख़त्म हुई। इसमें गोदी और सांप्रदायिक मीडिया के कंधे पर बड़ी निर्णायक भूमिका निभाने की ज़िम्मेदारी आ गई है। इसकी चपेट में कुछ दलित भी आए और पालघर में दो हिंदू साधु भी। सांप्रदायिक तत्वों के लिए ये मात्र अपवाद हैं जो हर नियम के साथ अनिवार्यतः चलते रहते हैं। इसके चक्कर में सांप्रदायिक सुख नहीं छोड़ा जा सकता।
अक्सर राजनीति में कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना होता है। सांप्रदायिक राजनीति का तो यह परम सत्य है। बढ़ती मॉब लिंचिंग से मुस्लिम समाज तो डरता ही है। क्योंकि उस पर तो सीधे-सीधे हमला हो रहा है लेकिन उसके साथ-साथ भाजपा हिंदू समाज में भी यह संदेश देना चाहती है कि उसके लोग अब किसी के भी घर में घुस कर मारेंगे, अब उनका राज है। लोग इसी बात के लिए वोट भी देते हैं। उन्हें लगता है कि इसी में उनकी सुरक्षा है। इसे गुजरात दंगे की नृशंसता से समझा जा सकता है। मैं यह नहीं मानता कि गुजराती समाज एक क्रूर सांप्रदायिक सरकार चाहता रहा है। उस दंगे में जिस तरह से जनसंहार किया गया उसका असर केवल मुस्लिम समाज पर हुआ होगा, यह मुमकिन नहीं है। उसका व्यापक असर हिंदू जनमानस पर भी हुआ होगा कि अगर सरकार की बात नहीं मानी तो उनका हश्र भी वही होगा जो मुसलमानों का किया गया। गुजरात के हिंदू समाज को डर के माहौल में सांप्रदायिक सरकार का समर्थन करना पड़ा होगा जिसे उन्होंने ख़ुद की झेंप मिटाने के लिए विकास का नाम दे दिया। दंगाइयों को विकास पुरुष कहने का चलन यहीं से शुरू हुआ है। यकीन न हो तो किसी व्यापारी से गुजरात दंगे पर सवाल करके देख लीजिए। पहले तो वह बेचारा आपको टटोलेगा कि आप किसकी तरफ़ से हैं ? फिर वह आपके सवाल के बाद इधर-उधर झांक कर देखेगा कि कहीं कोई उसे सवाल पूछने वाले के साथ देख न ले। आख़िर उसे भी तो जन-भावना का ख़्याल रखना होता है।
सोचना चाहिए कि अगर बादशाह औरंगज़ेब को दारा शिकोह या सूफ़ी सरमद को मौत के घाट ही उतारना था तो वह अपने कारावास में मौत के घाट उतार देता। किसी को पता भी नहीं चलता। पर वह चाहता था कि सबको पता चले। अपनी क्रूरता का प्रदर्शन करना चाहता था वह। इसलिए उसने दिल्ली में लोगों को दिखा कर उन्हें मौत के घाट उतारा। मौत का यह सार्वजनिक प्रदर्शन अपने विरोधियों को डराने के काम तो आया ही साथ में अपने समर्थकों को भी डराने में काम आया। तभी तो वह लगभग पचास साल हुकूमत कर पाया।
जब किसी के तर्क चूक जाते हैं तो उसके पास हत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। सरकार और सरकारों के पास अगर दुबारा चुने जाने का कोई तर्क न बचे तो वो क्या करें ? औरंगज़ेब दारा शिकोह और सरमद के साथ बैठ कर बात तो कर ही सकता था या नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी के साथ बैठ कर बात कर सकता था। पर वे बात करते भी क्या? उनके पास बात थी ही नहीं। इसलिए तलवार चला दी/गोली चला दी। फिर अपने तलवार/गोली चलाने को महिमामंडित भी किया। सांप्रदायिक-फ़ासीवादी विचारों के पास बात करने को कुछ नहीं होता। हिटलर की नाज़ी पार्टी ने यहूदियों के ख़िलाफ़ चाहे जितने भी तर्क गढ़े हों पर वह जानता था कि किसी को मारने के लिए कोई भी तर्क पर्याप्त नहीं होगा इसलिए उसने व्यापक जनसंहार करवा दिया। जन-भावना उसके साथ थी। अभी कुछ ही दिन पहले पेशावर में इस्लामी आतंकवादियों ने एक स्कूल पर हमला करके बच्चों का क़त्ल कर दिया था। उनके पास कोई तर्क होता तो वो बच्चों को अपने तर्क समझाते। पर वो इतनी ज़हमत क्यों करते जब जन-भावना उनके साथ थी ?
अख़लाक़ की मॉब लिंचिंग, जुनैद की मॉब लिंचिंग, पहलू ख़ान की मॉब लिंचिंग, ऊना के दलितों की मॉब लिंचिंग, पालघर में साधुओं की मॉब लिंचिंग, किसी महिला को चुड़ैल साबित करके मॉब लिंचिंग आदि आदि समाज, धर्म, संप्रदाय, शासन, प्रशासन और व्यक्ति का तर्क से चूकना ही है। इस समय भारत में इन तमाम तरह की मॉब लिंचिंग और हत्याओं का एक ही (कु)तर्क है, हिंदू ख़तरे में है। सोचिए, जो इस देश में आबादी का अस्सी प्रतिशत से ज़्यादा है, जब वह ख़तरे में है तो बाकी (लगभग) बीस प्रतिशत आबादी का क्या हाल होगा। क्या सांप्रदायिक सत्ता अपने संप्रदाय के लोगों को भी सुरक्षा नहीं दे सकती? उन्हें डर से निजात नहीं दिला सकती? तो फिर ऐसी सरकार का क्या फ़ायदा?