श्रम पर हिंदुत्व का हमला

हो सकता है हिंदुत्व का झंडा लहराने वाले ज़्यादातर लोग देश की उन्नति ही चाहते हों। शायद उन्हें लगता है कि हिंदुत्व से जन्मे समाज में गौरव और स्वाभिमान के भाव हमें उस उन्नति की ओर ले जाएंगे जो दशकों के कुशासन के कारण टलती रही। ज़ाहिर है यही उन्नति श्रमिकों को मौजूदा निराशा और दरिद्रता से निकालेगी (चाहे इन श्रमिकों में मुसलमान और दलित वर्ग को ना ही गिना गया हो)। विचार अच्छा है, पर वास्तविकता के विपरीत।

बेचारा हिंदुत्ववादी सोच रहा है कि राष्ट्र के वर्तमान शासक उसी की तरह सोचते हैं। सच ये है कि ना ही वे हिन्दू हैं, ना हिंदुत्ववादी। वे किसी तीसरे ही ‘वाद’ के पक्षपाती हैं।

वक़्त की आवाज़ 6, किसका संविधान, किसका देश?, के इस लेख में प्रभात पटनायक सरलता से स्पष्ट करते हैं कि हिंदुत्व असल में विचारधारा नहीं, छलावा है।


हिंदुत्व की वर्ग प्रक्रिया भी अब दिन-पर-दिन स्पष्ट होती जा रही है। हिंदुत्व की ओट में मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण और श्रमिक वर्ग पर हमले के एक व्यापक कार्यक्रम में जुटी है। सरकार यह करने की हिम्मत एक ऐसे समय जुटा पा रही है जब देश को हिंदुत्व के नाम पर बाँटा जा रहा है; जब बहुसंख्यक समुदाय के दिलों में ‘दूसरों’ का भय और उसके परिणामस्वरूप उनके लिए नफ़रत भरा जा रहा है।

भय किसी तारणहार की ज़रूरत को पैदा करता है और जब यह तथाकथित ‘तारणहार’ निजीकरण भी कर रहा हो तो लोग उसके इस क़दम के प्रति ज़्यादा सख़्त विरोध नहीं कर पाते। वे हिंदुत्व की बहस में इतने उलझे होते हैं कि वे कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र के उस वर्गीय एजेंडा को कोई चुनौती पेश नहीं कर पाते जिसमें इस तरह का निजीकरण मुख्य रूप से छाया रहता है। संक्षेप में कहा जाए तो हिंदुत्व एक तरह की विमर्श-बदली कर देता है जो कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र के हित में काम करती है।

निजीकरण को विविध तरीक़ों से पेश किया जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ उपक्रमों को सीधी बिक्री के लिए निर्धारित कर दिया गया है और इसमें केवल घाटा उठाने वाला उपक्रम नहीं हैं बल्कि वे उपक्रम भी हैं जो ख़ासा मुनाफ़ा कमा रहे हैं। अन्य उपक्रमों में सरकार विनिवेश के ज़रिए इक्विटी में अपनी हिस्सेदारी को 51 फ़ीसदी से नीचे लाने की मंशा रख रही है। कुछ अन्य उपक्रमों के मामले में विचार यह है कि उन उपक्रमों की कुल गतिविधि को छोटी-छोटी गतिविधियों में बाँट दिया जाए और कुछ गतिविधियों में विनिवेश करके उनका सार्वजनिक चरित्र ख़त्म कर दिया जाए। रेलवे के मामले में इसी आख़िरी तरीक़े का इस्तेमाल किया जा रहा है।

मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के इन सारे तरीक़ों के अलावा, कोशिश इस बात की भी है कि जहाँ पर सार्वजनिक क्षेत्र है वहाँ भी उसे दरकिनार कर दिया जाए ताकि उसका दायरा जितना संभव हो कम किया जा सके। जैसे कि कोयला खनन जैसे क्षेत्र में, जिसे सामान्यतया कमोबेश सार्वजनिक क्षेत्र के लिए ही सुरक्षित रखा जाता था, वहाँ भी अब निजी विदेशी पूँजी को हिस्सेदारी के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। रेलवे के अंगों, जैसे कि लोकोमोटिव में विदेशी कंपनियों से आयात का सहारा लिया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र में घरेलू उत्पादन उसी हिसाब से कम किया जा रहा है। यह सब सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को लुप्तप्राय बना देने की भूमिका भर है।

इसी तरह, मौजूदा श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ करने के लिए भी क़ानून आने वाले लोकसभा सत्र में पेश किया जाने वाला है जिससे श्रमिकों को निकालना ज्यादा आसान हो जाएगा। दरअसल, देश की कुल श्रमशक्ति का महज़ 4 फ़ीसदी हिस्सा ही अब मौजूदा श्रम क़ानूनों के तहत उपलब्ध बची-खुची सुरक्षा पा रहा है क्योंकि अब ‘संगठित क्षेत्र’ तक में श्रमशक्ति को अस्थायी किए जाने का काम उल्लेखनीय तेज़ी से हो रहा है। लिहाज़ा, श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलाव का वास्तविक मक़सद ट्रेड यूनियनों को नामुमकिन बनाना है और अब श्रमिकों को यूनियनों से जोड़ने का काम करने वाले किसी भी शख़्स को सीधे-सीधे नौकरी से निकाल दिया जाता है।

सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण करने का भी ठीक यही नतीजा होगा। पूरी दुनिया में, सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में श्रमिकों की यूनियनों में हिस्सेदारी काफ़ी कम है। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में सार्वजनिक क्षेत्र (शिक्षा समेत) में 33 फ़ीसदी श्रमिक यूनियनों में शामिल हैं, जबकि निजी क्षेत्र में मात्र 7 फ़ीसदी श्रमिक यूनियनों का हिस्सा हैं। ज़ाहिर है कि कोई यूनियन जब सार्वजनिक क्षेत्र की जगह पर निजी क्षेत्र का हिस्सा हो जाएगी तो यूनियन की गतिविधियों पर बहुत हानिकारक असर होगा।

यानी नरेंद्र मोदी सरकार का असली उद्देश्य श्रमिक वर्ग पर खुला हमला बोलना है और इस बात को कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र बहुत पसंद करेगा। पहले यह काम करना इतना आसान नहीं था। हिंदुत्व की छत्रछाया में इसे अब हासिल कर लिए जाने की योजना है।

हिंदुत्व की छाया में कॉर्पोरेट का फ़ायदा कोई संयोगवश नहीं है। दरअसल, हिंदुत्व के पैरोकारों की आर्थिक विचारधारा बेझिझक और बेशर्म तरीक़े से कॉर्पोरेट-समर्थक है। इस तथ्य को ख़ुद मोदी ने अधिकतम संभव स्पष्ट रूप से ज़ाहिर कर दिया था जब उन्होंने यह कहा था कि पूँजीपति ही देश के लिए ‘संपदा की संरचना’ करने वाले हैं। यह वो दावा है जो बुर्जुआ अर्थव्यवस्थाएँ भी करने से हिचकती रही हैं।

बुर्जुआ अर्थशास्त्र की मानक किताबें ‘उत्पादन के चार कारकों’ का उल्लेख करती हैं – ज़मीन, श्रम, पूँजी व उपक्रम – जो मिलकर उत्पादन करती हैं, और जिन पर संपदा की संरचना निर्भर करती है। उनके द्वारा इस तरह सबको शामिल करने की धारणा इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि वे यह ज़ाहिर करना चाहते हैं कि पूँजीपति जिस पूँजी का ‘योगदान’ करते हैं, वह संपदा की संरचना में श्रम से किसी भी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है। यानी, पूँजीपति शोषक नहीं हैं, जैसा कि समाजवादी लोग कहते हैं, बल्कि वे संपदा की संरचना में योगदान देने वालों में से हैं।

लेकिन हिंदू दक्षिणपंथी तो मानक बुर्जुआ किताबों से भी आगे चले गए हैं। उसने संपदा की संरचना करने वालों की सूची में से श्रम को पूरी तरह से बाहर कर दिया है। बुर्जुआ किताबों की ही तरह वे संपदा-संरचना की प्रक्रिया में पूँजीपतियों को केवल श्रम के समान सह-संरचकों में से ही नहीं मानते बल्कि उन्हें संपत्ति का इकलौता रचयिता मानते हैं। कॉर्पोरेट जगत के लिए चल रहे आज के इस दौर में पूँजीपतियों के पक्ष में यह जो कायरतापूर्ण गुणगान है, उससे ज़्यादा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

दरअसल, बुर्जुआ किताबों से आगे जाकर, हम यह कह सकते हैं कि प्राकृतिक रूप से काम करने वाला मानव श्रम सभी चीजों या उपयोग मूल्यों का स्रोत है। इनमें से ही कुछ चीजें प्राकृतिक काम करने की प्रक्रिया में श्रम के साधनों (पूँजी स्टॉक) के तौर पर इस्तेमाल होती है। व्यक्तियों का एक समूह यानी कि पूँजीपति अपने आप को श्रम के इन साधनों का स्वामी बना लेते हैं और इस तरह से वे उनसे उत्पादित हुई वस्तुओं के एक हिस्से पर ख़ुद कोई भी श्रम किए बिना अपना दावा जता देते हैं। वे जो भी हथियाते हैं, उसका एक हिस्सा उपभोग में ले लेते हैं और बाक़ी हिस्से का इस्तेमाल वह श्रम के साधनों के भंडार को बढ़ाने के लिए कर लेते हैं।

एक पल को हम उदारता दिखाते हुए पूँजीपतियों की मोदी द्वारा की जा रही तारीफ़ को इस नज़रिये से देख लेते हैं कि वे श्रम के साधनों के भंडार में इज़ाफ़ा भी करते हैं। तिस पर भी, उन्हें इस वजह से ‘संपदा का रचयिता’ कहना, कि वे जो भी हथियाते हैं, वह सारा उपभोग तो नहीं कर लेते बल्कि वे श्रम के साधनों को बढ़ाते भी हैं – समूची प्रक्रिया को लेकर उनकी पूरी अज्ञानता को ज़ाहिर करता है।

मोदी द्वारा दिखाई गई और भी ज़्यादा अज्ञानता उनकी इस टिप्पणी से ज़ाहिर होती है कि सरकार ने महज़ कॉर्पोरेट क्षेत्र को जो 1.45 लाख करोड़ रुपये की कर राहत दी है, वह सबके लाभ के लिए हैं; वह दावा करते हैं कि वह सभी 120 करोड़ भारतीयों के लिए ‘विन-विन’ (जीत की) स्थिति है!

इस मामले में तो मोदी पूँजीपतियों के ‘संपदा के रचयिता’ होने के अपने ही नज़रिये से भी आगे बढ़ जाते हैं। यानी कि अगर कॉर्पोरेट सीधे-सीधे यह 1.45 लाख करोड़ रुपये की समूची राशि डकार जाए और इसका रत्ती भर भी इस्तेमाल श्रम के साधनों में इज़ाफ़ा करने में न करें (जिसके परिणामस्वरूप अंततः कुल माँग में गिरावट होगी और ज़बर्दस्त बेरोज़गारी बढ़ेगी), तो भी मोदी के लिहाज़ से तो यह ‘विन-विन’ स्थिति ही होगी!

अब यह साफ़ है कि अर्थशास्त्र का हिंदुत्व नज़रिया बहुत सहज सा है – जितना ज़्यादा धन कॉर्पोरेटों के हाथ में रहेगा, उतना ही अच्छा यह समाज के लिए है। हालाँकि कितना दिया जा सकता है, इसकी सीमा इस बात से तय होगी कि श्रमजीवी लोगों को कितना दिया जाना चाहिए। यानी, हिंदुत्व नज़रिया यह कहता प्रतीत होता है कि जितना कम श्रमजीवी वर्ग को दिया जाएगा, उतना ही समाज के लिए बेहतर होगा! संक्षेप में कहा जाए तो हिंदुत्व नज़रिया, केवल अल्पसंख्यक-विरोधी, दलित-विरोधी, जनजाति-विरोधी, महिला-विरोधी ही नहीं है, जैसा कि अब सबको पता है, बल्कि वह अनिवार्य रूप से और बुनियादी तौर पर श्रमजीवी लोगों का विरोधी भी है।

अब यहाँ बड़ी शातिराना द्वंद्वात्मकता काम कर रही है। इस समय देश को जिस आर्थिक संकट ने घेरा हुआ है, उसके लिए हिंदुत्व का समाधान यह है कि कॉर्पोरेटों के हाथ में मौजूद धन को और बढ़ा दिया जाए। दरअसल, उसके अर्थशास्त्र को देखते हुए उसकी और कोई अवधारणा हो भी नहीं सकती। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे बहस को और भी आक्रामक तरीक़े से दूसरी तरफ़ मोड़़ना होगा और कई सारे झटके देना वाले अभियान छेड़़ने होंगे, जैसे कि एक देश-एक भाषा, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस, नागरिकता संशोधन विधेयक वगैरह। इनमें से हरेक का लोगों की ज़िंदगी और देश की एकता पर विनाशकारी प्रभाव होगा।

लेकिन इसके अलावा, चूँकि कॉर्पोरेटों के हाथों में ज़्यादा धन उपलब्ध कराने से आर्थिक संकट से पार पाने के बजाय उसे और गहराने वाला ही असर होगा, इसलिए हिंदुत्ववादी सरकार इन ख़तरनाक अभियानों को रोकने के बजाय उन्हें और तेज़ ही करेगी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जैसे-जैसे संकट बढ़ेगा, और उसे दूर करने की फ़िज़ूल कोशिशों में कॉर्पोरेट-समर्थक क़दम उठाए जाएँगे, उतने ही लाचार अल्पसंख्यकों पर सांप्रदायिक हमले भी बढ़ेंगे।

हिंदुत्व-कॉर्पोरेट ध्रुव हिंदुत्व द्वारा आत्मसात की गई एक वर्गीय समझदारी के इर्द-गिर्द बुना गया है। यह शातिराना द्वंद्वात्मकता खुलकर सामने परोसी तो जा रही है, पर इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी इस तथ्य में निहित है कि इस द्वंद्वात्मकता से संकट निरंतर बढ़ेगा और आख़िरकार उससे वह प्रतिरोध पनपेगा जो इसे निगल लेगा।


फ़ीचर इमेज : ऑरिजित सेन के सौजन्य से।