वर्ग से मुलाकात

बाबासाहेब डॉक्टर आंबेडकर की भारत और साम्यवाद (लेफ्टवर्ड, 2019) के लिए लिखी गई आनंद तेलतुम्बडे की भूमिका का एक हिस्सा :


वर्ग से मुलाकात

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आंबेडकरवादियों ने मार्क्सवाद के प्रति अपने विद्वेष के चलते वर्गीय राजनीति को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। इसलिए उन्हें यह याद दिलाया जाना आवश्यक है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति को मुख्यतः वर्गीय अर्थों में परिभाषित किया था – जाति, वर्ग का ही एक पर्याय है। अपने संघर्ष को सूत्रबद्ध करते समय उन्होंने जाति को एक वर्ग के रूप में देखा था। सभी अछूत जातियों का एक वर्ग, दमित वर्ग अथवा मराठी भाषा में दलित वर्ग। हाँ, यह बात और है कि वर्ग की उनकी अवधारणा, मार्क्सवादी नहीं थी। वर्ग की उनकी अवधारणा का झुकाव मार्क्स की तुलना में वेबर की ओर अधिक रहा लेकिन यह झुकाव रहा ‘वर्ग’ के तरफ़ ही।

1909 में मार्ले-मिंटो सुधारों के लिए चर्चा के दौरान, मुस्लिम लीग ने एक विवाद उठाया था कि आदिवासी और अस्पृश्य, हिंदू नहीं हैं और इसलिए उन्हें कांग्रेस (जिसे हिंदुओं का प्रतिनिधि माना गया था) तथा मुस्लिम लीग के प्रतिनिधित्व की तुलनात्मक भागीदारी की गणना के समय बाहर रखा जाना चाहिए। इस बात पर आंबेडकर को हिंदूओं से सौदा करने के लिए प्रभावी कारक मिल गया। महाड संघर्ष (1927) की शुरुआत में और उस दौरान भी वे आशान्वित थे कि हिंदुओं के उन्नत तबके आगे आकर दलितों के साथ होने वाले अन्याय को समाप्त करने का बीड़ा उठाएंगे। हिंदुओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने उनकी उम्मीद पर पानी फेर दिया। इसलिए महाड के तुरंत बाद आंबेडकर ने दलितों के धर्मांतरण की धमकियां देनी शुरू कीं। दलितों से मुसलमान बन जाने का आह्वान किया। जलगांव (बरार) के कुछ दलितों ने उनकी आज्ञा का पालन भी किया था। हालांकि उन्होंने कभी अपने इस औचित्य की कोई व्याख्या नहीं की। लेकिन परिस्थितियों को देखते हुए इसे समझना कठिन नहीं होगा। इसके दो लक्ष्य दिखाई पड़ते हैं – दलितों की मांगों को मनवाने के लिए हिंदुओं पर दवाब बनाना और राजनैतिक सता में भागीदारी के लिए दावेदारी प्रस्तुत करना। इस कार्यनीति को वे दलितों की अलग राजनैतिक पहचान को सफलतापूर्वक स्थापित करने के बाद प्रयोग में लाने वाले थे।

उनको ये मौका 1930-32 के गोलमेज सम्मेलनों में मिला। जिसका आयोजन ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए किया था। आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच एक गंभीर विवाद शुरू हो गया था। जिसमें आंबेडकर दलितों के लिए एक पृथक राजनैतिक पहचान लेकर विजयी भी हुए थे। 4 अगस्त 1932 को घोषित ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैकडॉनल्ड के कम्युनल अवार्ड ने सवर्ण जातियों, निम्न जातियों, मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो इंडियंस और यूरोपीय लोगों के साथ अस्पृश्यों को भी पृथक निर्वाचन क्षेत्र प्रदान किए। गांधी ने दलितों को लेकर ऐतराज जताया और इस अवार्ड को अस्वीकार करते हुए विरोध स्वरुप आमरण अनशन पर चले गए। सीपीआई ने पृथक निर्वाचन क्षेत्र की इस योजना को ख़ारिज कर दिया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, मेरठ के समक्ष 18 कम्युनिस्ट अभियुक्तों ने संयुक्त वक्तव्य में दमित वर्गों के आंदोलन तथा सरकार की निंदा की। उन्होंने कहा कि – ‘सरकार मुख्यतः काल्पनिक और अंततः प्रतिक्रियावादी दमित वर्ग के आंदोलन में अधिक रूचि ले रही है और उनको पृथक निर्वाचन क्षेत्र प्रदान कर रही है …’।

गांधी ने आंबेडकर को पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करने के लिए ब्लैकमेल कर लिया था। इस पैक्ट को 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट में समाविष्ट कर लिया गया था। पूना पैक्ट में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र के स्थान पर संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा दी गई थी तथा कांग्रेस ने यह वादा किया था कि वह दलितों के उत्थान के लिए प्रयत्न करती रहेगी। भारतवासियों को सत्ता सौपं ने के लिए, 1935 के इंडिया ऐक्ट के तहत प्रांतीय विधानसभाओं के लिए 1937 में आम चुनाव घोषित कर दिए गए थे। आंबेडकर ने इन चुनावों में भाग लेने के लिए अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नाम से एक राजनैतिक दल की स्थापना कर ली थी। इससे पता चलता है कि आंबेडकर सिर्फ अछूतों के बीच ही नहीं बल्कि उनके अतिरिक्त जनता के अन्य हिस्सों में भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे। उनकी वह रणनीति जो अब तक महज महार जाति (आंबेडकर की जाति) तक सीमित थी, अब अपना विस्तार कर रही थी। आंबेडकर और उनकी आईएलपी को फेबियन विचारों के अनुरूप ढाला गया था और फेबियनों की पार्टी यानि इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का नाम तक अपना लिया गया था। फेबियन पार्टी की स्थापना ब्रिटेन में 1893 में हुई थी। ट्रेड यूनियनों तथा समाजवादी पार्टियों द्वारा 1906 में बनाई गई लेबर पार्टी में ब्रिटिश फेबियन दल का विलय हो गया था। एक बार फिर 1932 में ब्रिटिश आईएलपी लेबर पार्टी से अलग हो गई थी। हालांकि आंबेडकर की आईएलपी चुनावी अंकगणित से सं चालित थी लेकिन वैचारिक धरातल पर यह आंबेडकर की मनोवृत्ति के अधि क निकट थी। जबकि कार्यक्र म के स्तर पर यह कांग्रेस के अंदर एक समाजवादी धड़े के रूप में काम कर रहे कम्युनिस्टों के कार्यक्र म के नजदीक थी।

आंबेडकर ने आईएलपी को ‘मजदूरों की पार्टी’ की संज्ञा दी थी। पार्टी के स्थापना दिवस (15 अगस्त 1936) पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित एक साक्षात्कार में पार्टी के नाम की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘दमित’ के स्थान पर ‘श्रमिक’ का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि श्रमिकों में दमित वर्ग भी सम्मिलित होता है। बहरहाल, इस बात से आगामी चुनावों में दमित वर्गों के अलावा दूसरे तबकों तक अपनी अपील पहुँचाने की उनकी रणनीति भी स्पष्ट होती है। पार्टी घोषणापत्र में दमितों को श्रमिकों के रूप में चित्रित किया गया था और ‘जाति’ शब्द का प्रयोग इसके आखिरी उद्देश्य के लिए और केवल एक बार बड़े ही चलताऊ ढंग से किया गया था – ‘पार्टी, प्रशासन पर किसी एक विशेष जाति अथवा समुदाय द्वारा एकाधिकार जमाए जाने के खिलाफ भी प्रयासरत रहेगी’। पार्टी के मैनिफेस्टो में बताया गया कि ग्रामीण क्षेत्र में जनसंख्या और भूमि जोतों का विभाजन ही गरीबी के मुख्य कारण थे, जिसका निराकरण औद्योगिकीकरण से संभव था ताकि खेती में प्रयुक्त होने वाले इनपुट अधिकतम स्तर तक उपलब्ध रहें और निवेश के लिए ज़रूरी सरप्लस पैदा होता रहे। इसने कार्यकुशलता तथा उत्पादकता में सुधार लाने के लिए तकनीकी शिक्षा के एक विस्तृत कार्यक्र म की वकालत की। जहाँ भी आवश्यक हो वहाँ राज्य प्रबंधन और राज्य के स्वामित्व के सिद्धांत का पक्ष लिया। औद्योगिक मजदूरों के हितों तथा उनके अधि कारों के लिए ऐसे कानूनों को लागू करने का पक्ष लिया गया था जिससे कर्मचारियों के रोजगार, बर्खास्त गी और पदोन्नति पर नियंत्रण रहे। काम के अधिकतम घं टे निर्धारित हों, लाभकारी वते न, सवतै निक अवकाश तथा सस् ते एवं स्वच्छ आवास मुहैय्या कराने का प्रावधान हो। मैनिफेस्टो में गांव स्तर पर, आवास तथा स्वच्छता के लिए योजना बनाने का प्रस्ताव था ताकि गाँवों के बारे में लोगों के दृष्टिकोण को आधुनिक बनाया जा सके।

आंबेडकर ने महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में काश्तकारों (जिनमें अछूत महार और हिंदू जाति कुनबी दोनों ही शामिल थे) के प्रश्न उठाए थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सहयोग से आईएलपी ने जनवरी 1938 मुंबई में 20,000 किसानों के एक विशाल मार्च का आयोजन किया था। यह स्वतंत्रता पूर्व की सबसे बड़ी किसान गोलबंदी थी। यहाँ व्यावहारिक तौर पर यह दर्शाया गया था कि कैसे संघर्ष के जरिए वर्ग और जाति दोनों का विलय किया जा सकता है। कई विद्वानों ने बताया है कि इस अवसर पर आंबेडकर का भाषण मार्क्सवादी शब्दावली से ओतप्रोत था :

देखा जाए तो दुनिया में केवल दो ही जातियां हैं – पहली अमीरों की और दूसरी गरीबों की […] जिस तरह हम आज यहाँ एकजुट हुए हैं उसी तरह हमें अपने संगठन को मजबूत करने के लिए जातीय और धार्मिक मतभेदों को भुला देना चाहिए।

उनके ‘कम्युनिस्ट मित्र’ ध्यान दें कि इस भाषण में उन्होंने यह भी जोड़ा था कि मार्क्सवादी सिद्धांत से मतभेदों के बावजूद ‘मेहनतकशों के वर्ग संघर्ष के मुद्दे पर मैं कम्युनिस्ट दर्शन को अपने बेहद करीब महसूस करता हूँ’।

आंबेडकर समूचे महाराष्ट्र और गुजरात में किसान सम्मेलनों को संबोधित करने जाते रहे। 1938 में बम्बई सरकार (काग्ं रेस मंत्रि परिषद) ने हड़ताल पर प्रति बंध लगाने के उद्देश्य से प्रांतीय विधानसभा में औद्योगिक विवाद विधेयक पेश किया। यह 1929 के श्रम विवाद अधिनियम से भी ज्यादा कठोर था। उस कठोर विधेयक के कारण ही अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) में काम कर रहे मार्क्सवादी तथा आंबेडकर के नेतृत्व वाली इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के साथी एक साथ आए। इसने एक लाख मजदूरों की एक बड़ी हड़ताल करने के लिए साझा आधार प्रदान किया। आंबेडकर ने विधानसभा में विधेयक के निंदा की अगुआई की और यह दलील दी कि हड़ताल का अधिकार ‘स्वतंत्रता के अधिकार का ही बस दूसरा नाम’ था।

मगर इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जो कम्युनिस्टों को प्रभावित कर पाता। उन्होंने न ही आईएलपी का सहयोग किया और न ही स्वागत। उनका मानना था कि आंबेडकर और उनकी पार्टी द्वारा किए जा रहे संघर्ष से मजदूर वोटों का विभाजन होगा। उधर आंबेडकर ने पलटवार करते हुए कहा कि कम्युनिस्ट नेता मजदूरों के हितों का प्रयास तो करते हैं लेकिन वे कभी भी अनुसूचित जाति के मजदूरों के मानवाधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करते। इसलिए जब आंबेडकर ने वर्ग संघर्ष छेड़ा तब इनके बीच की यह दरार समाप्त होने के बजाए और बढ़ती ही गई।

1930 का दशक आंबेडकर का सर्वश्रेष्ठ क्रांति कारी दौर था। कई विद्वानों ने यह माना कि इस दौरान वे मार्क्सवादी समझ के सबसे अधिक करीब थे। इसी तरह की स्थिति 1946 में पैदा हुई जब उन्होंने अनुसूचित जाति फेडरेशन की ओर से स्टेट्स ऐंड माइनॉरिटीज नामक आलेख लिखा, जिसे संविधान सभा (सीए) के सामने संविधान के प्रारूप के तौर पर सौपं ा जाना था। आबं डे कर ने यह आलेख इसलिए लिखा था क्योंकि उनका अनुमान था कि उन्हें संविधान सभा में शामिल नहीं किया जाएगा। 1946 के चुनावों में एससीएफ़ को केवल दो सीटों पर विजय हासिल हुई थी जो उन्हें संविधान सभा में चुने जाने के लिए पर्याप्त नहीं थीं। किसी भी अन्य पार्टी ने संविधान सभा के लिए उनके प्रयास को समर्थन देने का आश्वासन नहीं दिया था। आंबेडकर ने स्टेट्स ऐंड माइनॉरिटीज में जिस मॉडल का प्रस्ताव दिया था, वह भारत के लिए एक ‘राज्य प्रायोजित समाजवाद’ का मॉडल था। उस मॉडल के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार थे :

प्रमुख उद्योगों का स्वामित्व और संचालन राज्य द्वारा किया जाएगा। वह उद्योग जो प्रमुख तो नहीं पर बुनियादी उद्योग हैं, उन्हें भी राज्य अथवा राज्य के स्थापित निगम द्वारा संचालित किया जाएगा। बीमा क्षेत्र में राज्य का एकाधिकार होगा और प्रत्येक वयस्क नागरिक को अपनी मजदूरी के अनुरूप एक जीवन बीमा पॉलिसी लेना ज़रूरी होगा। कृषि राज्य का एक उद्यम होगा। उद्योग, बीमा और कृषि जैसे व्यक्तिगत स्वमित्व (मालिक, पट्टेदार या गिरवी धारी) के क्षेत्र में भी राज्य, सहायक अधिकार उपार्जित करेगा। मुआवजे के रूप में उन्हें उतने ही मूल्य के डिबेंचर जारी कर दिए जाएंगे। ये डिबेंचर हस्तांतरणीय तथा विरासत योग्य सं पत्ति होंगे और इन पर ब्याज कमाई जा सके गी लेकिन उनके मोचन (रिडेम्पशन) के संबंध में निर्णय राज्य द्वारा ही लिया जाएगा। राष्ट्रीयकृत भूमि को खेती योग्य जोतों के रूप में ग्राम सहकारी समितियों को बाँट दिया जाएगा। इनके लिए राज्य द्वारा आवश्यक पूंजी, उपकरण, प्रौद्योगिकी और अन्य लागत की आपूर्ति की जाएगी। इसके बदले में वे अपने उत्पादों का एक हिस्सा राज्य को देंगे। निजी सं पत्ति के लिए यह लघु एवं कुटीर उद्योग, व्यक्तिगत जमा पूंजी, घरेलू जानवर आदि के रूप में प्रदान किया गया है।

1930 के दशक में अपने तमाम विचारधारात्मक मतभेदों के बावजूद आंबेडकर कम्युनिस्टों के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए दिखाई देते है। लेकिन कम्युनिस्ट इस तरफ कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए दिखाई नहीं देते हैं। उन्होंने आंबेडकर के संघर्ष को महज अधिसंरचनावादी, साम्राज्यवाद पोषित तथा प्रतिक्रियावादी मानते हुए हठधर्मिता पूर्वक स्वयं को उससे अलग ही रखा था।

आंबेडकर का ‘क्रांति कारी’ चरण आईएलपी के भंग होने और 1942 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन के गठन के साथ समाप्त हो गया। उसी समय उन्हें वाइसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल में एक लेबर मेंबर की हैसियत से शामिल कर लिया गया था। हालांकि इसने कांग्रेस द्वारा छेड़े गए सविनय अवज्ञा आंदोलन को पंचर करने के ब्रिटिश उद्देश्यों की पूर्ति की। लेकिन ऐसा लगता है जैसे आंबेडकर को वर्गीय राजनीति में कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। शायद इसका कारण यह था कि तब तक पूरा राजनैतिक परिदृश्य सांप्रदायिक हो चुका था। फिर भी मजदूर वर्ग के हित के लिए कई क़ानून बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सभी दलों की सहमति से एक संविधान का निर्माण कर ब्रिटिश पहले ही सत्ता के हस्तांतरण के लिए सहमत हो चुके थे। आईएलपी की रणनीति के तहत आंबेडकर दलित प्रतिनिधित्व के लिए कोई आवाज़ नहीं जुटा सके। हालांकि एससीएफ़ का कार्यकाल भी चुनावी प्रदर्शन के हिसाब से प्रभावशाली नहीं रहा।


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